रूह साथी

समय की परतों में दूर कहीं
जगमगाते तारे से
रेखाओं और रंगों के परखी
इन्द्रधनुष से

तुम

आये और अपनी छटा बिखेर
अचरज भरी आँखों को
नम कर अंतर्धान हो गए |

मैं उन परतों को अब
टटोल
तुम्हारे रंगों और रेखाओ
को देख
विस्मित सी …

उन निशब्द चित्रों की
अथाह भाषा में खो
रही ….

तुम्हे तो समय ने बांध लिया
पर तुम अपने
हाथों के निशान
इतने करीने से
छोड़ गए
की समय की बंदिश भी
तुम्हे रोक न सकी
मुझसे बात कहने से |

शायद यही रूह का साथ है
यही रूहानी पहचान है |

कालिंदी और भाग्य

कालिंदी बड़ी सरल थी | मन में अटूट विश्वास से ओत प्रोत की जीवन की धारा को दिशा देना मनुष्य के मन और निश्चय पर निर्भर है| उसे बचपन से ही बड़ा स्पष्ट था की जीवन में उसे क्या पाना है और कहाँ पहुचना है | उसे कोई संदेह न था की उसकी जीवन की समझ कही से भी गलत है | भाग्य बचपन से कालिंदी की इस सोच से इर्ष्या रखता था| उसे यह ज़रा भी न भाता था की कालिंदी उसपर कभी निर्भर नहीं रहती थी |

भाग्य ये बाट जोहता था की कैसे उसके इस विश्वास में कैसे सेंध लगायी जाये और संदेह का बीज बोया जाए | समय बड़ा बलवान होता है| एक दिन वो समय से बोला की चल समय तो पलट जा फिर देखते हैं की कालिंदी कैसे मुझ पर निर्भर नहीं होती | समय हसा और बोला कि “बुरे वक़्त में तो लोग भाग्य को कोसते हैं तू क्यों बातें सुनना चाहता है | भाग्य अहंकार भरी वाणी में बोला “तभी तो अच्छे वक़्त में वो मेरी याद भी करते हैं | ”

समय ने कुछ सोचा और कहा ” चलो देखते हैं की क्या कालिंदी तेरी इस माया में खुद को भूल सकती है “| और समय ने पलटी खायी | कालिंदी जो आज तक हर कार्य में अव्वल और मेहनती थी अचानक और मेहनती थी अचानक उसने अपने आप को असफलता से घिरा पाया | चारो तरफ हर कोई गलत तरीको से आगे बढ़ता नज़र आया | परीक्षाओ में उसे भयानक चुनौतियों का सामना करना पड़ा | वो बीमार हुई | उसकी सारी मेहनत पर पानी फिरता रहा | उससे कम मेहनती लोग अचानक ही भाग्य के बूते सफल होते दिखने लगे | वो फिर भी अपने विश्वास पर डटी रही | पर भाग्य कम चालक न था उसने भी अपनी हठ न छोड़ी | समय पूछ बैठा ” कब तक भाग्य ?!!”

” जब तक कालिंदी अपने जीवन में मेरी प्रभुता स्वीकार न कर ले |”भाग्य ने हुकार भरी |

कालिंदी थक चुकी थी | उसकी वर्षों की मेहनत धीरे धीरे पानी होती जा रही थी | वो सुन सुन कर थक चुकी थी ” कालिंदी शायद ये तेरे भाग्य में ही नहीं था | वरना मेहनत में तो तुमने कोई कमी न छोड़ी थी |” कालिंदी पहले तो इस बात को काटती थी पर अब चुप से सुन लेती |

भाग्य अभी भी बाट जोह रहा है की कभी तो कालिंदी उसके दर पर घुटने टेकेगी | और कालिंदी गहन मौन में खुद को संजोय सतत परिश्रम की डोर को थामे हुए समय पर भाग्य के जोर के टूटने की प्रतीक्षा में है |

प्यासी बूँद

अथाह आकाश में तैरता एक मेघ घनेरा होता जा रहा था | उसकी गोद में असंख्य बूँदें अपनी निंद्रा में लीन थी | असीम शांति का माहौल था | मेघ भी हौले-हौले आगे बढ़ रहा था | पर एक बूँद जागृत अवस्था में बडे समय से मेघ के पथ को निहार रही थी | परन्तु अब उसके सब्र का बाँध टूट रहा था | मेघ अपने अन्दर उठी एक विचित्र कुलबुलाहट से ठिठक गया | गौर करने पर उसे वह बूँद दिखी |बूँद का हाल अजीब था मानो अभी धरती की ओर कूच कर जायेगी |

मेघ ने उससे पूछा “ इतनी छटपटा क्यों रही है तू नन्ही बूँद | देख तेरे संगी सुप्त है | समय आने तक सब्र कर री|”

बूँद मेघ से कुछ रोष और कुछ पीड़ा के संग बोल उठी “ मैं प्यासी हूँ |”

मेघ कुछ अचरज और कुछ हास्य मिश्रित वाणी में पूछ बैठा “ तू प्यासी है ??!!”

“ तुझे किसकी प्यास है री ?”

बूँद पट से बोली “ मुझे सागर को पीना है|”

बूँद की मुर्खता पर मेघ को हँसी भी आई और प्रेम भी |

“पर नन्ही सी तू सागर को  कैसे पी लेगी ! अरे पानी की बूँद है तू प्यासी कैसे हो सकती है ???”

पर बूँद के तेवर न बदले| वह बोली “ मेघा तू न समझेगा इस माया को! तू उड़ चल जल्दी से सागर की ओर |नदी के कोलाहल का सब्र न है अब मुझे में | सागर की है प्यास मुझे उड़ चल अब प्रश्न न कर | पी जओंगी मैं सागर को इतना खुद पर  है विश्वास मुझे |”

मेघ हतप्रभ था बूँद के दुस्साहस पर | अनगिन बूंदों का मसीहा था वो और आज ये छोटी नगण्य सी बूँद उसे निर्देश दे रही थी | पर मेघ ने भी ठानी कर लेने देते है इसको अपनी मनमानी | इसका हश्र तो होगा वोही जो अब तक सबका हुआ |

मेघ उड़ चला सागर की ओर | बूँद की कुल्बुल्हाहत अब बिजली बन कौंधने लगी थी | सागर तक पहुच मेघ सागर से बोला  “ सुन रे सागर आज तक मैंने देखि न सुनी पर मुझमे है एक बूँद समायी जो कहती है की तुझे पीने है पीने आई  |”

सागर से लहेरे उठी और उसने अट्टहास लगायी “ मेघा तू क्या बौरा गया है ? सागर को कौन पी सकता है | मुझमें लीन  होना ही बूँद का भाग्य है |”

अब तक मेघ में समाई हर बूँद जाग उठी थी और वो सब भी उस बावली हठ की मारी बूँद की मुर्खता पर चुटकी ले ले कर खिलखिला रही थी | मेघ को जाने क्यों अब उस बूँद पर तरस आने लगा था | पर इस परिहास से विचलित हुए बिना चुपचाप वो बूँद खुद को तैयार कर रही थी अपने मकसद को पूरा करने को | उसकी इच्छा की उर्जा अब भयंकर तड़ित बन कर कौंधने लगी थी | रात भर  सागर में तूफ़ान उठता रहा  और देखते ही देखते झर झर झर कर मेघा खाली हो गया |

सुबह हो गयी थी ! चहु ओर शांति अपने पग फैला रही थी | रात्रि के तूफ़ान का कही नामोनिशान न बचा था | मेघा का देह हल्का और श्वेत हो चला था ( मानो शोक व्यक्त कर रहा हो ) पर मन जाने क्यों भरी था | जाने कितने वर्षो से कितनी ही बूँदें उसमे समायी और बरस गयी | पर ऐसी हठी और धुन की पक्की बूँद उसने कभी न देखी थी | यूँ तो बूँद ने  मेघ से सिर्फ रोष , तड़प और हठ से भरी  वार्तालाप ही की थी पर फिर भी मेघ को रह रह कर उसका स्मरण हो रहा था |

नीचे सागर एकदम शांत था | शायद वह भी उस हठी बूँद का स्मरण कर रहा था| मेघ से रहा न गया | सोचा शायद सागर से दो बातें कर मन हल्का हो जाए |

“ सागर सुन बड़ी हठी बूँद थी ना | पर कितनी मूर्ख | अब देख तुझमे न जाने कहा लीन  हो गयी है | पर मुझे उसकी बड़ी याद सता रही है | मन बोझिल है यह जानते हुए भी की बूँद का भाग्य यही है |”

सागर शांत मेघ की बातें सुनाता रहा | पर उसके होंठो पर एक रहस्यमयी मुस्कान छाई थी | मेघ उसे देख कर बोला “ तू क्यों मुस्काता है सागर ? मेरी बातें क्या मज़ाक लगाती है तुझे ? तू भूल गया क्या उसे जो तुझे पीने को आतुर थी  पर मुर्ख भोली बूँद तुझ में समां कर खत्म हो गयी | पर सच कहू तो मुझे दुःख है उसके जाने का |”

और विशाल सागर ने लहरो की करवट ली और एक गहन प्रेम भरी वाणी  बोल उठी

“ अरे मेघा ! तूने पहचाना नहीं …. ये मैं ही तो हूँ |”